गैरसैंण का नाम...गढ़वाली भाषा से लिया गया है। गैर का मतलब
गहरा और सैंण का मतलब मैदान.. यानी पहाड़ों की घाटी...। समुद्र से 5 हजार 7 सौ 40
फीट की ऊंचाई पर बसे गैरसैंण को कुदरत ने भले ही अल्हड़ पहाड़ी खूबसूरती से नवाज़ा
है। लेकिन यहां मूलभूत सुविधाओँ के नाम पर टूटी फूटीसड़कों के अलावा कुछ नहीं है...।
गैरसैंण देहरादून से 260 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ों के बीचों बीच बसा है... बाकि
पहाड़ी इलाके की तरह ही गैरसैंण में विकास नाममात्र का हुआ है... लेकिन गैरसैंण की
खास बात ये है कि यह राज्य के ठीक बीच में बसा है...। यही वजह रही है कि अलग राज्य
का सपना देखने वाले आंदोलनकारी इसे राजधानी बनाना चाहते थे... वे मानते थे कि जब
पहाड़ के केंद्र में विकास होगा तभी वो बाकि जगहों पर भी फैलेगा...।
पहाड़ के लोगों के लिए विकास या राजधानी का मतलब एक ही है। जो चकाचौंध औऱ जो सुविधाएँ वे देहरादून में देखते आए हैं... उन्हें वो पहाड़ में नहीं दिखती, साथ ही जो लगाव पहाड़ के आदमी को पहाड़ से है, मैदान में उन्हें वो बात नहीं दिखती। ये और बात है कि लगातार पलायन भी पहाड़ से ही हो रहा है।
पलायन पहाड़ की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। पहाड़ के लिए पहाड़डियों का होना उतना ही ज़रूरी है जितना कि पहाड़ी लोगों के लिए पहाड़ का अस्तित्व। लेकिन सरकारी विकास का रथ पहाड़ में चढ़ते चढ़ते हांफने लगता है। आज पहाड़ की कहानी मौदान के मुकाबले काफी दयनीय और पीड़दायक हो गई है। पहाड़ में रोजगार और जीवनयापन के स्रोतों की बेहद कमी है जिसकी वजह से ही पलायन लोगों के लिए आखिरी रास्ता बन गया है।
लेकिन आज के
सियासतदां... यहां विकास तो नहीं ला पाए... पर हां, विधानसभा भवन की नींव रख
कर, और एक सत्र यहां चलाने का वादा कर, वे पहाड़ में राजधानी के मुद्दे को गौण करना चाहते हैं... बल्कि इसका
सियासी फायदा भी उठना चाहते हैं।
वहीं बात करें देहरादून की... तो राज्य गठन के बहुत पहले से
ही यहां हवाई पट्टी और सरकारी और प्रशानिक भवनों जैसे आधार भूत संरचनाओँ और मूलभूत
सुविधाएं मूर्त रूप ले चुकी थीं... राजनेताओँ के देहरादून से लगाव की वजह, इसका
मैदान से सीधा जुड़ाव भी है। और नए परीसीमन के बाद जहां पहाड़ में विधानसभा सीटें
कम हुई हैं तो वहीं देहरादून के आसपास कई नई सीटें जुड़ गई हैं... लिहाजा सियासत के
उसूलों के तहत देहरादून का महत्व गैरसैंण के मुकाबले काफी बढ़ गया है।
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