Sunday, June 7, 2015

तवायफ के महल के बैंक बनने तक की कहानी

बहुत कम लोगों को पता होगा कि दिल्ली में एक ऐसी ऐतिहसिक इमारत है, जो कभी किसी बेग़म का महल हुआ करता था, जो 1857 के खूनी गदर का साक्षी रहा, जिसने भारत के इतिहास को परत दर परत बदलते देखा। मुग़ल गए, अंग्रेज आए और फिर आजादी का जश्न हुआ, लेकिन ये इमारत अपनी जमीन पर खड़ी रही, इतिहास के हर लम्हें को अपने में समेटे हुए। चांदनी चौक बाजार की स्टेट बैंक बिल्डिंग को बेग़म समरू ने 1806 में बनवाया था। उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ में महल बनाने के लिए मुग़ल सल्तनत के बादशाह अकबर शाह ने जमीन थी।




बेगम समरू का इतिहास

बेगम समरू का असली नाम फरज़ामा जेबुनिसा था, वो कश्मीरी थी। समरू के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि वो तवायफ थी। लेकिन एक तवायफ से जागीरदार बनने की उसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 14 साल की तवायफ फरजाना पर 45 साल के एक फिरंगी फौजी की नजर पड़ी, जो रुपयों के लिए किसी के लिए भी लड़ने को तैयार हो जाता था। उस फिरंगी का नाम वॉल्टर सोम्बर था। उसके पास फिरंगियों और भारतीय मूल के सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी थी। सोम्बर और फरजाना लखनऊ से लेकर बरेली तक और डीग से लेकर आगरा तक छोटी छोटी रियासतों को फौजी मदद दिया करते थे। वॉल्टर सोम्बर ने अपनी काबलियत से मेरठ के पास सरधना की छोटी जागीर भी हासिल कर ली थी। और सोम्बर की मौत के बाद फरजाना सरधना के बेग़म समरू कहलाने लगी। यही नहीं अब बेग़म खुद सोम्बर की फौज का नेतृत्व करती थी।







जब दिल्ली को बचाया था बेग़म ने...
मुग़ल सल्तनत का ये वो सबसे बुरा दौर था, जब साल 1783 में शाह आलम के दरवाजे पर 30 हजार सिखों की फौज ने घेराबंदी कर दी थी। बेग़म समरू ही थीं जिसने मुग़ल सल्तनत को सिखों के कहर से बचाया और मोची रकम देकर उन्हें दिल्ली से रवाना भी कर दिया। आज भी वो जगह तीस हजारी के नाम से मशहूर है जहां सिखों ने डेरा डाला था।

यही नहीं बेगम ने साल 1787 में मुगल बादशाह शाह आलम के खिलाफ विद्रोह करने वाले नजफ कुली खान को भी अपनी फौजी ताकत के बल पर शाह आलम से सुलह के लिए मजबूर किया था, जिसके बाद शाह आलम ने बेग़म को अपने दरबार में सम्मानित कर उसे अपनी बेटी का दर्जा दिया था। शाह आलम की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे अकबर शाह ने बेग़म समरू के एहसानों के बदले उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ की जमीन महल बनाने के लिए दी थी।




बेग़म समरू का महल जब बैंक में बदल गया
दिल्ली पर 1806 के आसपास अंग्रेजी हुकूमत का दबदबा हो गया था, उस वक्त अंग्रेजों को अपनी अदालत लगाने के लिए समरू के महल से बेहतर कोई दूसरी ईमारत नहीं मिली थी। इतिहासकारों के मुताबिक साल 1847 तक बेग़म समरू के महल मे अंग्रेजों की अदालते लगती थीं। लेकिन 1847 में अंग्रेजों द्वारा सुरु किए गए दिल्ली बैंक ने अइस इमारत को खरीद लिया था।

1857 के गदर में जब पूरी दिल्ली में कत्लेआम चल रहा था, तो उस वक्त दिल्ली बैंक के मैनेजर जॉर्ज बैरस्फोर्ड, उनकी पत्नी और पांच बच्चों का कत्ल क्रांतिकारियों ने सी इमारत में किया था। 1857 के गदर के बाद जब हालात सामान्य हुए तो इम्पूरियल बैंक ने इस इमारत को अपने कब्जे में लिया। कुछ साल तक भारतीय रिजर्व बैंक भी इसी इमारत से चला था। बाद में इसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की शाखा में तबदील कर दिया गया।











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