Thursday, September 10, 2015

बस अब चमत्कार ही उसके पति को फांसी से बचाएगा !



बस अब चमत्कार ही उसके पति को फांसी से बचाएगा !

जिंदगी कैसे एक पल में जहन्नुम में तब्दील हो जाती है इसकी जीती जागती मिसाल दिल्ली की हमाना युसुफ फारूखी है। 15 साल हो गए हैं उसकी जिंदगी को नासूर बने हुए, फिर भी वो हर पल इंसाफ की उम्मीद में है। लेकिन याकूब मेमन की फांसी के बाद से उसके हौंसले टूटने लगे हैं। वो अब किसी चमत्कार की उम्मीद कर रही है।
रेहमाना का पति आरिफ उर्फ अशफाक पाकिस्तानी नागरिक है और 25 दिसंबर, साल 2000 को लालकिले पर हुए आतंकी हमले का कथित आरोपी है, इस हमले में लालकिले पर ड्यूटी कर रहे सेना के तीन जवान शहीद हो गए थे, जबकि हमलावर आतंकी फरार हो गए थे। आरिफ फिलहाल तिहाड़ जेल में फांसी की सजा का इंतजार कर रहा है। रेहमाना को डर है कि आरिफ को अब किसी भी वक्त फांसी दी जा सकती है।
रेहमाना कहती है कि वो अब किसी चमत्कार का इंतजार कर रही है ताकि सारे सबूतों की नए सिरे से जांच हो सके। रेहमाना के मुताबिक आरिफ को दोषी साबित करने वाले जितने भी सबूत अदालत में पेश किए गए हैं वो बेहद कमजोर और शक पैदा करने वाले हैं, लेकिन सही जांच की कमी की वजह से मामला अब तक लटका हुआ है।
देश की सर्वोच्च अदालत ने 10 अगस्त, 2011 को आरिफ की मौत की सजा को बरकरार रखा था और 28 अगस्त 2012 को उसकी रिव्यू पेटिशन को खारिज कर दिया था। वहीं आरिफ के वकीलों की तरफ से दायर क्यूरेटिव पेटिशन को भी सुप्रीम कोर्ट ने  23 जनरवी 2014 को खारिज कर दिया।
अपने शौहर को रॉ का ऐजेंट बताती है रेहमाना
रेहमाना के मुताबिक जिस दिन आरिफ को पुलिस ने पकड़ा था उस दिन वे दोनों पूर्वी दिल्ली में अपनी बहन के घर गए हुए थे। पुलिस ने आरिफ को तो गिरफ्तार किया था ही साथ ही रेहाना, उसकी मां, बहन और छोटे भाई को भी हिरासत में ले लिया था। बाद में पुलिस ने आरिफ और रेहाना के अलावा सभी को छोड़ दिया था।
रेहमाना के मुताबिक उसे गिरफ्तार होने के बाद ही पता चला कि उसका पति पाकिस्तानी नागरिक है। उसके मुताबिक बार बार पूछने के बाद आरिफ ने उसे बताया कि उसे अपनी सही पहचान का खुलासा ना करने के निर्देश दिए गए थे।
यही नहीं रेहाना के मुताबिक आरिफ भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ का पाकिस्तानी एजेंट था। आरिफ का ये बयान अदालती रिकॉर्ड में दर्ज भी है और अबतक आरिफ इसी बयान पर बरकरार है। लेकिन किसी भी अदालत ने आरिफ के इस बयान को तरजीह नहीं दी है।
आरिफ ने अदालत मे बयान दिया कि वो साल 1997 से रॉ की एक्स-ब्रांच में कार्यरत था। साल 2000 में वो पाकिस्तान इंटरनेश्नल एरलाइन की फ्लाइट से नेपाल की राजधानी काठमांडू किसी संजीव गुप्ता नाम के शख्स को कागजात देने गया था। लेकिन उसे पाकिस्तान से उसके चचेरे भाई ने देश वापस ना आने को कहा था, क्योंकि उसके भाई को पाकिस्तानी एजेंसियों ने पख्तूनमिली नाम के राजनीतिक संगठन के साथ संबंधों के चलते गिरफ्तार कर लिया गया था। आरिफ के मुताबिक इस राजनीतिक दल को रॉ का समर्थन हासिल था। इसके बाद आरिफ संजीव गुप्ता के साथ पाकिस्तान से भारत की सीमा में दाखिल होकर रक्सौल पहुंचा जहां से वो दिल्ली आया। दिल्ली में गुप्ता ने आरिफ को नैन सिंह नाम के एक शख्स के साथ रहने को कहा, आरिफ के मुताबिक नैन सिंह ने ही उसे अपनी पहचान गुप्त रखने को कहा था और इसी शख्स ने पैसों के लेन-देन में विवाद के चलते उसे फंसाया था।
दिल्ली हाईकोर्ट ने आरिफ को मौत की सजा सुनाते वक्त अपने फैसले में नैन सिंह पर टिप्पणी की थी और कहा था कि ऐसा प्रतीत होता है कि नैन सिंह भारत सरकार के किसी गुप्तचर एजेंसी या रॉ में कार्यरत है। सुप्रीम कोर्ट ने भी आरिफ की सजा को बरकरार रखते हुए नैन सिंह की भूमिका पर बचाव पक्ष की दलीलों को शानदार ठहराया था।
पुलिस और अभियोजन पक्ष रेहमाना से सहमत नहीं
पुलिस के मुताबिक लालकिले पर आतंकी हमले के एक दिन बाद जांचकर्ताओँ को घटना स्थल से एक पर्ची पर मोबाइल नंबर लिखा मिला था, जिसे ट्रेस करते हुए जांचकर्ता आरिफ तक पहुंचे थे। पुलिस के मुताबिक आरिफ ने अपनी गिरफतारी के बाद लाल किले पर आतंकी हमले में अपनी भूमिका को ना सिर्फ कबूला था, बल्कि अपने एक साथी अबू शमल की भी जानकारी दी थी। आरिफ को लेकर पुलिस अबू शमल को पकड़ने के लिए ओखला के बाटला हाउस गई थी जहां एंकाउंटर के दौरान अबू को मार गिराया गया था।

पुलिस के मुताबिक एंकाउंटर के बाद आरिफ को लेकर वो उसके फ्लैट पर गई जहां स्टैंडर्ड चार्टेड बैंक की एक 5 लाख रुपए की डिपोजिट स्लिप मिली, खाते की जांच से पता चला कि वो एक कश्मीरी कारोबारी नाजिर अहमद कासिद का खाता था। पुलिस के मुताबिक आरिफ नाजिर अहमद के घर पर लश्कर ए तैयबा की बैठकों में शरीक होता था और लश्कर की गतिविधियों के लिए नाजिर के खातों में रुपया जमा करवाता था।
रेहमाना सहित नौ लोगों को इस पूरी साजिश में आरोपी बनाया गया था। रेहमाना के मुताबिक उसके जिस खाते में जमा रुपयों को पुलिस ने हवाला रैकेट से जोड़ा था वो उसकी मां ने उसकी शादी के लिए बचा कर रखा हुआ था।
ट्राइल कोर्ट में पुलिस ने आरोप लगाया था कि आरिफ लश्कर का आतंकी था और उसने लाल किले पर हमले से पहले साल 1999 में भारत में घुसपैठ की थी और कश्मीर में ठिकाना बनाया था। यही नहीं रेहमाना को इस पूरी साजिश का पता था और उसने हमले से 14 दिन पहले ही आरिफ से निकाह किया था।
रेहमाना की अधूरी कहानी
रेहमाना मूल रूप से यूपी के मोरादाबाद की रहने वाली है। उसके मुताबिक वो 90 के दशक की शुरुआत में दिल्ली में अपनी तलाकशुदा बहन के साथ रहने के लिए आई थी। रेहमाना के की रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ था और इस वजह से उसकी शादी भी नहीं हो रही थी, वो 28 साल की थी जब उसके परिजनों ने उसकी शादी के लिए लड़के की तलाश मे इश्तेहार जारी किया और जिसके जवाब में आरिफ ने रेहाना के परिजनों से संपर्क किया था। रेहमाना के मुताबिक उसके परिजनों ने शादी से पहले आरिफ के बारे में अच्छी तरह से जांच-पड़ताल की थी, लेकिन उसकी शादी और खुशियां 14 दिनों तक ही चल सकीं।
तिहाड़ जेल में 5 साल, 4 महीने और 4 दिन गुजारने के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने रेहाना को बरी तो कर दिया, लेकिन जेल से बाहर आकर भी उसकी जिंदगी पटरी पर नहीं लौट सकी। उसके सभी रिश्तेदारों ने उससे नाता तोड़ दिया, कोई उससे बाते नहीं करता और वो अकेले ही दर दर की ठोंकरे खाने पर मजबूर हो गई। रेहाना के मुताबिक कई रातें उसने निजामुद्दीन दरगाह में गुजारी हैं।
रेहमाना बताती है कि इतना कुछ सहने के बाद आखिरकार उसे उसकी मां ने सहारा दिया, लेकिन वो भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकती थी क्योंकि वो खुद रेहाना की बहनों पर निर्भर थी। आखिरकार जब दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे बरी किया और उसके खातों को बहाल किया तब जाकर ओखला में उसकी मां ने उसे ये एक कमरे का फ्लैट दिलवाया। दो साल पहले ही रेहमाना की मां का इंतकाल हुआ है। रेहमाना अपने एक कमरे के फ्लैट में बस इस इंतजार में रहती है कि शायद कोई चमत्कार हो जाय और आरिफ उसके पास आ जाय। रेहमाना के मुताबिक उसके इस विश्वास की वजह ये है कि जिस दिन लाल किले पर हमला हुआ था उस दिन आरिफ पूरे दिन उसके साथ था औऱ सिर्फ नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद गया था।
तथ्य जिन पर रेहमाना दोबारा जांच चाहती है
1-    लाल किले से मिली चिट- आरिफ को पुलिस ने लाल किले से मिली एक चिट के आधार पर गिरफतार किया था। इस चिट पर कथित तौर पर आरिफ का मोहाइल नंबर लिखा हुआ था। रेहमाना के मुताबिक पुलिस ने जब उन्हे पकड़ा था तब उनके घर से पुलिस ने कुछ भी जब्त नहीं किया था, लेकिन बहुत सारी चीजों को रिपोर्ट में जब्द दिखाया था। सबूतों को पेश करते वक्त पुलिस ने कहा कि उन्हें तलाशी में आरिफ से एक रिवॉल्वर मिला था। पुलिस ने कहा कि एक दूसरी तलाशी में आरिफ से एक मोबाइल फोन मिला था, जिसका नंबर लाल किले से मिली पर्ची पर लिखा हुआ था। इस पर्ची की बरामदगी का अलग अलग अधिकारियों ने अलग अलग वक्त बताया है। हाईकोर्ट ने इस पर कहा कि क्योंकि अधिकारी लंबे अर्से के बाद गवाही दे रहे हैं लिहाजा सही वक्त का अंदाजा लगाना मुश्किल है।

2-    रिवॉल्वर की बरामदगी- अदालत में जिस रिवॉल्वर का अंकित नंबर बताया गया है वो पुलिस की बरामदगी में पाए गए रिवॉल्वर से मेल नहीं खाता है। हाई कोर्ट ने इस पर कहा है कि ऐसा लापरवाही से हुई गलती से हो सककता है।


3-    जिस मोबाइल फोन को पुलिस ने कथित तौर पर आरिफ से बरामद किया था, उसी मोबाइल फोन की कॉल डीटेल की जांच से पता चला कि लाल किले के पर आतंकी हमले से दो महीने पहले दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के एक नंबर से कॉल आई थी। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ये संभव है कि आरिफ पुलिस में अपनी पहचान के लोगों के साथ संपर्क में था और ऐसा लगता है कि आरोपी ने पुलिस और गुप्तचर ऐसेंसी के अधिकारियों से अपनी जान पहचान का फायदा गलत गतिविधियों को अंजाम देने के लिए उठाया है।

Sunday, June 7, 2015

लुटेरों से लेकर कद्रदानों तक की विरासत संजोए है यह लाइब्रेरी


दिल्ली को लूटने और उससे छीनने के लिए यूं तो कई सूरमां आए, लेकिन बहुत कम शख्सियतें ऐसी हैं, जिन्होंने दिल्ली को कुछ दिया है। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, मिर्जा असउद्दौला खान और गालिब जैसे महान शायरों और विचारकों ने दिल्ली को ज्ञान और दर्शन की जो विरासत दी थी वो आज भी जिंदा है। पुरानी दिल्ली के चूड़ीवालान इलाके की पहाड़ी इमली गली में एक कमरे की लाइब्रेरी में वो तमाम बेशकीमती और ऐतिहासिक किताबें मौजूद हैं, जो किसी दूसरी लाइब्रेरी में नहीं मिल सकती। 

इस लाइब्रेरी तक पहुंचना भी कोई आसान बात नहीं है। यहां तक पैदल या सिर्फ रिक्शे के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। तकरीबन दो दशक से एक ही कमरे में चल रही शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी पुरानी दिल्ली के उस पुराने दौर को वापस लाने की कोशिश में हैजब दिल्ली ज्ञान और कला के क्षेत्र में उत्कर्ष पर थी।



शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी की खासियत

यूं तो एक कमरे में चलने वाली ये पब्लिक लाइब्रेरी बड़ी साधारण हैलेकिन यहां मौजूद 16 हजार से ज्यादा किताबें लोगों को हैरान करने के लिए काफी हैं। लाइब्रेरी के संचालक नईम के मुताबिक बाइस सौ किताबें ऐसी हैंजो बेहद दुर्लभ हैं और 60 फीसदी तो अब कहीं छपती भी नहीं हैं। नईम बताते हैं कि उनके पास 125 दुर्लभ पांडुलिपियां भी मौजूद हैं।



शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी का खजाना

पहाड़ी इमली इलाके की शाह वलिउल्लाह लाइब्रेरी में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी और उन्हीं के राज में लाल किले की शाही प्रेस में 1855 में छपी दीवान-ए-जफर मौजूद है। ये किताब जफर के सूफियाना रुख का परिचय तो देती ही है साथ ही यह भी बताती है कि बादशाह जफर ना सिर्फ उर्दूअरबी और फारसी के माहिर थेबल्कि पंजाबी में भी आसानी से गजले लिखते थे। लाइब्रेरी के संचालक नईम बताते हैं कि उनके पास जो किताबें मौजूद हैंवो कहीं और नहीं मिलेंगी। हालांकि वो कहते हैं कि दूसरी लाइब्रेरियों में दीवान-ए-जफर मिलती जरूर हैलेकिन वो शाही प्रेस में छपी किताब नहीं होती हैं। इसी के साथ यहां मिर्जा गालिब की बेमिसाल किताब दीवान-ए-गालिब भी उनके मूल हस्ताक्षरों के साथ मौजूद है।

यहां किताबों के बीच तलाशते हुए लोगों को तकरीबन एक सदी पहले लाहौर में छपी जापूजी साहेब और सुखमनी साहेब की प्रतियांभजन कव्वाली ज्ञानसूफी मत पर लिखा गया 250 साल पुराना ग्रंथ, 600 साल तर्क आधारित ईरानी ग्रंथइराकबेरूत और सउदी अरब की बेशकीमती कलाकृतियों वाली पांडुलिपियां मिल जाएंगी। 

यहां एक हजार साल पुरानी कुरान की दुर्लभ प्रति भी मौजूद हैजिसका हर पन्ना एक अलग शैली में लिखा गया है। अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के पिता नवाब अमजद अली शाह के निजी संग्रह की किताबें और बांग्ला में पहली बार छपा कुरान का तर्जुमा भी मौजूद है।

इसी के साथ उर्दू में लिखी गई श्रीमद् भगवद् गीता और एमिली मेटकाल्फ की लिखी किताब, “द गोल्डन काल्म- एन इंग्लिश लेडीज लाइफ इन मुगल डेल्ही” भी इस लाइब्रेरी की दराज में कहीं दिखाई पड़ जाएगी।








अब बदलेंगे शाह वलिउल्लाह लाइब्रेरी के हालात!

लाइब्रेरी को डेल्ही यूथ वेलफेयर एसोसिएशन नाम की एक संस्था चलाती है, जिसके अध्यक्ष नईम मोहम्मद हैं, नईम इस लाइब्रेरी के संचालक भी हैं। नईम के मुताबिक, इस लाइब्रेरी की शुरुआत से उन्हें किसी खास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा है। उन्हें सिर्फ सरकारी और नेताओं की वादाखिलाफी का अफसोस है। नईम के मुताबिक, लाइब्रेरी बहुत छोटी है और किताबें बहुत ज्यादा, लिहाजा लाइब्रेरी के लिए नई जगह की मांग वो सभी से करते आए हैं, लेकिन आज तक किसी ने उनकी नहीं सुनी। नईम बताते हैं कि देश-विदेश से पर्यटक और स्कॉलर्स उनकी लाइब्रेरी देखने आते हैं, लेकिन किताबों और दस्तावेजों की दिनों-दिन खराब होती हालत से वे चिंतित होते हैं। नईम ने बताया कि केंद्र सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय ने अब जाकर किताबों और दस्तावेजों को सुरक्षित करने का काम उनकी लाइब्रेरी में शुरू किया है।

तवायफ के महल के बैंक बनने तक की कहानी

बहुत कम लोगों को पता होगा कि दिल्ली में एक ऐसी ऐतिहसिक इमारत है, जो कभी किसी बेग़म का महल हुआ करता था, जो 1857 के खूनी गदर का साक्षी रहा, जिसने भारत के इतिहास को परत दर परत बदलते देखा। मुग़ल गए, अंग्रेज आए और फिर आजादी का जश्न हुआ, लेकिन ये इमारत अपनी जमीन पर खड़ी रही, इतिहास के हर लम्हें को अपने में समेटे हुए। चांदनी चौक बाजार की स्टेट बैंक बिल्डिंग को बेग़म समरू ने 1806 में बनवाया था। उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ में महल बनाने के लिए मुग़ल सल्तनत के बादशाह अकबर शाह ने जमीन थी।




बेगम समरू का इतिहास

बेगम समरू का असली नाम फरज़ामा जेबुनिसा था, वो कश्मीरी थी। समरू के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि वो तवायफ थी। लेकिन एक तवायफ से जागीरदार बनने की उसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 14 साल की तवायफ फरजाना पर 45 साल के एक फिरंगी फौजी की नजर पड़ी, जो रुपयों के लिए किसी के लिए भी लड़ने को तैयार हो जाता था। उस फिरंगी का नाम वॉल्टर सोम्बर था। उसके पास फिरंगियों और भारतीय मूल के सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी थी। सोम्बर और फरजाना लखनऊ से लेकर बरेली तक और डीग से लेकर आगरा तक छोटी छोटी रियासतों को फौजी मदद दिया करते थे। वॉल्टर सोम्बर ने अपनी काबलियत से मेरठ के पास सरधना की छोटी जागीर भी हासिल कर ली थी। और सोम्बर की मौत के बाद फरजाना सरधना के बेग़म समरू कहलाने लगी। यही नहीं अब बेग़म खुद सोम्बर की फौज का नेतृत्व करती थी।







जब दिल्ली को बचाया था बेग़म ने...
मुग़ल सल्तनत का ये वो सबसे बुरा दौर था, जब साल 1783 में शाह आलम के दरवाजे पर 30 हजार सिखों की फौज ने घेराबंदी कर दी थी। बेग़म समरू ही थीं जिसने मुग़ल सल्तनत को सिखों के कहर से बचाया और मोची रकम देकर उन्हें दिल्ली से रवाना भी कर दिया। आज भी वो जगह तीस हजारी के नाम से मशहूर है जहां सिखों ने डेरा डाला था।

यही नहीं बेगम ने साल 1787 में मुगल बादशाह शाह आलम के खिलाफ विद्रोह करने वाले नजफ कुली खान को भी अपनी फौजी ताकत के बल पर शाह आलम से सुलह के लिए मजबूर किया था, जिसके बाद शाह आलम ने बेग़म को अपने दरबार में सम्मानित कर उसे अपनी बेटी का दर्जा दिया था। शाह आलम की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे अकबर शाह ने बेग़म समरू के एहसानों के बदले उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ की जमीन महल बनाने के लिए दी थी।




बेग़म समरू का महल जब बैंक में बदल गया
दिल्ली पर 1806 के आसपास अंग्रेजी हुकूमत का दबदबा हो गया था, उस वक्त अंग्रेजों को अपनी अदालत लगाने के लिए समरू के महल से बेहतर कोई दूसरी ईमारत नहीं मिली थी। इतिहासकारों के मुताबिक साल 1847 तक बेग़म समरू के महल मे अंग्रेजों की अदालते लगती थीं। लेकिन 1847 में अंग्रेजों द्वारा सुरु किए गए दिल्ली बैंक ने अइस इमारत को खरीद लिया था।

1857 के गदर में जब पूरी दिल्ली में कत्लेआम चल रहा था, तो उस वक्त दिल्ली बैंक के मैनेजर जॉर्ज बैरस्फोर्ड, उनकी पत्नी और पांच बच्चों का कत्ल क्रांतिकारियों ने सी इमारत में किया था। 1857 के गदर के बाद जब हालात सामान्य हुए तो इम्पूरियल बैंक ने इस इमारत को अपने कब्जे में लिया। कुछ साल तक भारतीय रिजर्व बैंक भी इसी इमारत से चला था। बाद में इसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की शाखा में तबदील कर दिया गया।




ग़ैर होगा गैरसैंण का महत्व


गैरसैंण का नाम...गढ़वाली भाषा से लिया गया है। गैर का मतलब गहरा और सैंण का मतलब मैदान.. यानी पहाड़ों की घाटी...। समुद्र से 5 हजार 7 सौ 40 फीट की ऊंचाई पर बसे गैरसैंण को कुदरत ने भले ही अल्हड़ पहाड़ी खूबसूरती से नवाज़ा है। लेकिन यहां मूलभूत सुविधाओँ के नाम पर टूटी फूटीसड़कों के अलावा कुछ नहीं है...। गैरसैंण देहरादून से 260 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ों के बीचों बीच बसा है... बाकि पहाड़ी इलाके की तरह ही गैरसैंण में विकास नाममात्र का हुआ है... लेकिन गैरसैंण की खास बात ये है कि यह राज्य के ठीक बीच में बसा है...। यही वजह रही है कि अलग राज्य का सपना देखने वाले आंदोलनकारी इसे राजधानी बनाना चाहते थे... वे मानते थे कि जब पहाड़ के केंद्र में विकास होगा तभी वो बाकि जगहों पर भी फैलेगा...।

पहाड़ के लोगों के लिए विकास या राजधानी का मतलब एक ही है। जो चकाचौंध औऱ जो सुविधाएँ वे देहरादून में देखते आए हैं... उन्हें वो पहाड़ में नहीं दिखती, साथ ही जो लगाव पहाड़ के आदमी को पहाड़ से है, मैदान में उन्हें वो बात नहीं दिखती। ये और बात है कि लगातार पलायन भी पहाड़ से ही हो रहा है।

पलायन पहाड़ की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। पहाड़ के लिए पहाड़डियों का होना उतना ही ज़रूरी है जितना कि पहाड़ी लोगों के लिए पहाड़ का अस्तित्व। लेकिन सरकारी विकास का रथ पहाड़ में चढ़ते चढ़ते हांफने लगता है। आज पहाड़ की कहानी मौदान के मुकाबले काफी दयनीय और पीड़दायक हो गई है। पहाड़ में रोजगार और जीवनयापन के स्रोतों की बेहद कमी है जिसकी वजह से ही पलायन लोगों के लिए आखिरी रास्ता बन गया है।  

लेकिन आज के सियासतदां... यहां विकास तो नहीं ला पाए... पर हां, विधानसभा भवन की नींव रख कर, और एक सत्र यहां चलाने का वादा कर, वे पहाड़ में राजधानी के मुद्दे को गौण करना चाहते हैं... बल्कि इसका सियासी फायदा भी उठना चाहते हैं।

वहीं बात करें देहरादून की... तो राज्य गठन के बहुत पहले से ही यहां हवाई पट्टी और सरकारी और प्रशानिक भवनों जैसे आधार भूत संरचनाओँ और मूलभूत सुविधाएं मूर्त रूप ले चुकी थीं... राजनेताओँ के देहरादून से लगाव की वजह, इसका मैदान से सीधा जुड़ाव भी है। और नए परीसीमन के बाद जहां पहाड़ में विधानसभा सीटें कम हुई हैं तो वहीं देहरादून के आसपास कई नई सीटें जुड़ गई हैं... लिहाजा सियासत के उसूलों के तहत देहरादून का महत्व गैरसैंण के मुकाबले काफी बढ़ गया है।