Sunday, June 7, 2015

लुटेरों से लेकर कद्रदानों तक की विरासत संजोए है यह लाइब्रेरी


दिल्ली को लूटने और उससे छीनने के लिए यूं तो कई सूरमां आए, लेकिन बहुत कम शख्सियतें ऐसी हैं, जिन्होंने दिल्ली को कुछ दिया है। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, मिर्जा असउद्दौला खान और गालिब जैसे महान शायरों और विचारकों ने दिल्ली को ज्ञान और दर्शन की जो विरासत दी थी वो आज भी जिंदा है। पुरानी दिल्ली के चूड़ीवालान इलाके की पहाड़ी इमली गली में एक कमरे की लाइब्रेरी में वो तमाम बेशकीमती और ऐतिहासिक किताबें मौजूद हैं, जो किसी दूसरी लाइब्रेरी में नहीं मिल सकती। 

इस लाइब्रेरी तक पहुंचना भी कोई आसान बात नहीं है। यहां तक पैदल या सिर्फ रिक्शे के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। तकरीबन दो दशक से एक ही कमरे में चल रही शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी पुरानी दिल्ली के उस पुराने दौर को वापस लाने की कोशिश में हैजब दिल्ली ज्ञान और कला के क्षेत्र में उत्कर्ष पर थी।



शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी की खासियत

यूं तो एक कमरे में चलने वाली ये पब्लिक लाइब्रेरी बड़ी साधारण हैलेकिन यहां मौजूद 16 हजार से ज्यादा किताबें लोगों को हैरान करने के लिए काफी हैं। लाइब्रेरी के संचालक नईम के मुताबिक बाइस सौ किताबें ऐसी हैंजो बेहद दुर्लभ हैं और 60 फीसदी तो अब कहीं छपती भी नहीं हैं। नईम बताते हैं कि उनके पास 125 दुर्लभ पांडुलिपियां भी मौजूद हैं।



शाह वलिउल्लाह पब्लिक लाइब्रेरी का खजाना

पहाड़ी इमली इलाके की शाह वलिउल्लाह लाइब्रेरी में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी और उन्हीं के राज में लाल किले की शाही प्रेस में 1855 में छपी दीवान-ए-जफर मौजूद है। ये किताब जफर के सूफियाना रुख का परिचय तो देती ही है साथ ही यह भी बताती है कि बादशाह जफर ना सिर्फ उर्दूअरबी और फारसी के माहिर थेबल्कि पंजाबी में भी आसानी से गजले लिखते थे। लाइब्रेरी के संचालक नईम बताते हैं कि उनके पास जो किताबें मौजूद हैंवो कहीं और नहीं मिलेंगी। हालांकि वो कहते हैं कि दूसरी लाइब्रेरियों में दीवान-ए-जफर मिलती जरूर हैलेकिन वो शाही प्रेस में छपी किताब नहीं होती हैं। इसी के साथ यहां मिर्जा गालिब की बेमिसाल किताब दीवान-ए-गालिब भी उनके मूल हस्ताक्षरों के साथ मौजूद है।

यहां किताबों के बीच तलाशते हुए लोगों को तकरीबन एक सदी पहले लाहौर में छपी जापूजी साहेब और सुखमनी साहेब की प्रतियांभजन कव्वाली ज्ञानसूफी मत पर लिखा गया 250 साल पुराना ग्रंथ, 600 साल तर्क आधारित ईरानी ग्रंथइराकबेरूत और सउदी अरब की बेशकीमती कलाकृतियों वाली पांडुलिपियां मिल जाएंगी। 

यहां एक हजार साल पुरानी कुरान की दुर्लभ प्रति भी मौजूद हैजिसका हर पन्ना एक अलग शैली में लिखा गया है। अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के पिता नवाब अमजद अली शाह के निजी संग्रह की किताबें और बांग्ला में पहली बार छपा कुरान का तर्जुमा भी मौजूद है।

इसी के साथ उर्दू में लिखी गई श्रीमद् भगवद् गीता और एमिली मेटकाल्फ की लिखी किताब, “द गोल्डन काल्म- एन इंग्लिश लेडीज लाइफ इन मुगल डेल्ही” भी इस लाइब्रेरी की दराज में कहीं दिखाई पड़ जाएगी।








अब बदलेंगे शाह वलिउल्लाह लाइब्रेरी के हालात!

लाइब्रेरी को डेल्ही यूथ वेलफेयर एसोसिएशन नाम की एक संस्था चलाती है, जिसके अध्यक्ष नईम मोहम्मद हैं, नईम इस लाइब्रेरी के संचालक भी हैं। नईम के मुताबिक, इस लाइब्रेरी की शुरुआत से उन्हें किसी खास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा है। उन्हें सिर्फ सरकारी और नेताओं की वादाखिलाफी का अफसोस है। नईम के मुताबिक, लाइब्रेरी बहुत छोटी है और किताबें बहुत ज्यादा, लिहाजा लाइब्रेरी के लिए नई जगह की मांग वो सभी से करते आए हैं, लेकिन आज तक किसी ने उनकी नहीं सुनी। नईम बताते हैं कि देश-विदेश से पर्यटक और स्कॉलर्स उनकी लाइब्रेरी देखने आते हैं, लेकिन किताबों और दस्तावेजों की दिनों-दिन खराब होती हालत से वे चिंतित होते हैं। नईम ने बताया कि केंद्र सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय ने अब जाकर किताबों और दस्तावेजों को सुरक्षित करने का काम उनकी लाइब्रेरी में शुरू किया है।

तवायफ के महल के बैंक बनने तक की कहानी

बहुत कम लोगों को पता होगा कि दिल्ली में एक ऐसी ऐतिहसिक इमारत है, जो कभी किसी बेग़म का महल हुआ करता था, जो 1857 के खूनी गदर का साक्षी रहा, जिसने भारत के इतिहास को परत दर परत बदलते देखा। मुग़ल गए, अंग्रेज आए और फिर आजादी का जश्न हुआ, लेकिन ये इमारत अपनी जमीन पर खड़ी रही, इतिहास के हर लम्हें को अपने में समेटे हुए। चांदनी चौक बाजार की स्टेट बैंक बिल्डिंग को बेग़म समरू ने 1806 में बनवाया था। उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ में महल बनाने के लिए मुग़ल सल्तनत के बादशाह अकबर शाह ने जमीन थी।




बेगम समरू का इतिहास

बेगम समरू का असली नाम फरज़ामा जेबुनिसा था, वो कश्मीरी थी। समरू के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि वो तवायफ थी। लेकिन एक तवायफ से जागीरदार बनने की उसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 14 साल की तवायफ फरजाना पर 45 साल के एक फिरंगी फौजी की नजर पड़ी, जो रुपयों के लिए किसी के लिए भी लड़ने को तैयार हो जाता था। उस फिरंगी का नाम वॉल्टर सोम्बर था। उसके पास फिरंगियों और भारतीय मूल के सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी थी। सोम्बर और फरजाना लखनऊ से लेकर बरेली तक और डीग से लेकर आगरा तक छोटी छोटी रियासतों को फौजी मदद दिया करते थे। वॉल्टर सोम्बर ने अपनी काबलियत से मेरठ के पास सरधना की छोटी जागीर भी हासिल कर ली थी। और सोम्बर की मौत के बाद फरजाना सरधना के बेग़म समरू कहलाने लगी। यही नहीं अब बेग़म खुद सोम्बर की फौज का नेतृत्व करती थी।







जब दिल्ली को बचाया था बेग़म ने...
मुग़ल सल्तनत का ये वो सबसे बुरा दौर था, जब साल 1783 में शाह आलम के दरवाजे पर 30 हजार सिखों की फौज ने घेराबंदी कर दी थी। बेग़म समरू ही थीं जिसने मुग़ल सल्तनत को सिखों के कहर से बचाया और मोची रकम देकर उन्हें दिल्ली से रवाना भी कर दिया। आज भी वो जगह तीस हजारी के नाम से मशहूर है जहां सिखों ने डेरा डाला था।

यही नहीं बेगम ने साल 1787 में मुगल बादशाह शाह आलम के खिलाफ विद्रोह करने वाले नजफ कुली खान को भी अपनी फौजी ताकत के बल पर शाह आलम से सुलह के लिए मजबूर किया था, जिसके बाद शाह आलम ने बेग़म को अपने दरबार में सम्मानित कर उसे अपनी बेटी का दर्जा दिया था। शाह आलम की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे अकबर शाह ने बेग़म समरू के एहसानों के बदले उन्हें चांदनी चौक में फूलों के बाग़ की जमीन महल बनाने के लिए दी थी।




बेग़म समरू का महल जब बैंक में बदल गया
दिल्ली पर 1806 के आसपास अंग्रेजी हुकूमत का दबदबा हो गया था, उस वक्त अंग्रेजों को अपनी अदालत लगाने के लिए समरू के महल से बेहतर कोई दूसरी ईमारत नहीं मिली थी। इतिहासकारों के मुताबिक साल 1847 तक बेग़म समरू के महल मे अंग्रेजों की अदालते लगती थीं। लेकिन 1847 में अंग्रेजों द्वारा सुरु किए गए दिल्ली बैंक ने अइस इमारत को खरीद लिया था।

1857 के गदर में जब पूरी दिल्ली में कत्लेआम चल रहा था, तो उस वक्त दिल्ली बैंक के मैनेजर जॉर्ज बैरस्फोर्ड, उनकी पत्नी और पांच बच्चों का कत्ल क्रांतिकारियों ने सी इमारत में किया था। 1857 के गदर के बाद जब हालात सामान्य हुए तो इम्पूरियल बैंक ने इस इमारत को अपने कब्जे में लिया। कुछ साल तक भारतीय रिजर्व बैंक भी इसी इमारत से चला था। बाद में इसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की शाखा में तबदील कर दिया गया।




ग़ैर होगा गैरसैंण का महत्व


गैरसैंण का नाम...गढ़वाली भाषा से लिया गया है। गैर का मतलब गहरा और सैंण का मतलब मैदान.. यानी पहाड़ों की घाटी...। समुद्र से 5 हजार 7 सौ 40 फीट की ऊंचाई पर बसे गैरसैंण को कुदरत ने भले ही अल्हड़ पहाड़ी खूबसूरती से नवाज़ा है। लेकिन यहां मूलभूत सुविधाओँ के नाम पर टूटी फूटीसड़कों के अलावा कुछ नहीं है...। गैरसैंण देहरादून से 260 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ों के बीचों बीच बसा है... बाकि पहाड़ी इलाके की तरह ही गैरसैंण में विकास नाममात्र का हुआ है... लेकिन गैरसैंण की खास बात ये है कि यह राज्य के ठीक बीच में बसा है...। यही वजह रही है कि अलग राज्य का सपना देखने वाले आंदोलनकारी इसे राजधानी बनाना चाहते थे... वे मानते थे कि जब पहाड़ के केंद्र में विकास होगा तभी वो बाकि जगहों पर भी फैलेगा...।

पहाड़ के लोगों के लिए विकास या राजधानी का मतलब एक ही है। जो चकाचौंध औऱ जो सुविधाएँ वे देहरादून में देखते आए हैं... उन्हें वो पहाड़ में नहीं दिखती, साथ ही जो लगाव पहाड़ के आदमी को पहाड़ से है, मैदान में उन्हें वो बात नहीं दिखती। ये और बात है कि लगातार पलायन भी पहाड़ से ही हो रहा है।

पलायन पहाड़ की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। पहाड़ के लिए पहाड़डियों का होना उतना ही ज़रूरी है जितना कि पहाड़ी लोगों के लिए पहाड़ का अस्तित्व। लेकिन सरकारी विकास का रथ पहाड़ में चढ़ते चढ़ते हांफने लगता है। आज पहाड़ की कहानी मौदान के मुकाबले काफी दयनीय और पीड़दायक हो गई है। पहाड़ में रोजगार और जीवनयापन के स्रोतों की बेहद कमी है जिसकी वजह से ही पलायन लोगों के लिए आखिरी रास्ता बन गया है।  

लेकिन आज के सियासतदां... यहां विकास तो नहीं ला पाए... पर हां, विधानसभा भवन की नींव रख कर, और एक सत्र यहां चलाने का वादा कर, वे पहाड़ में राजधानी के मुद्दे को गौण करना चाहते हैं... बल्कि इसका सियासी फायदा भी उठना चाहते हैं।

वहीं बात करें देहरादून की... तो राज्य गठन के बहुत पहले से ही यहां हवाई पट्टी और सरकारी और प्रशानिक भवनों जैसे आधार भूत संरचनाओँ और मूलभूत सुविधाएं मूर्त रूप ले चुकी थीं... राजनेताओँ के देहरादून से लगाव की वजह, इसका मैदान से सीधा जुड़ाव भी है। और नए परीसीमन के बाद जहां पहाड़ में विधानसभा सीटें कम हुई हैं तो वहीं देहरादून के आसपास कई नई सीटें जुड़ गई हैं... लिहाजा सियासत के उसूलों के तहत देहरादून का महत्व गैरसैंण के मुकाबले काफी बढ़ गया है।