Sunday, April 3, 2011
लिखें किस के लिये?
लिखने की अपनी इच्छा पर हर बार कोई ना कोई अतातायी लंगर डाल कर डिगा देता है...। किसी की चाकरी करने पर ऐसा ही होता है। अपने लिए हिन्दुस्तान में वैसे ही सवा अरब बहाने हैं, लेकिन गाहे बगाहे जब बुद्धी लकीर पर आती है तो बाहरी तत्व रेखा मिटा देते हैं। बहरहाल जब लिखने की बारी आती है तो दिमाग़ की सारी नसें यूं सो जाती है मानों प्रधानमंत्री का मोटरी कारवां आ रहा हो और दिल्ली पुलिस ने रास्तों पर ठहरो के नाके लगा दिए हों।
अपन लिखे भी तो क्या, ये सोच कर भी दिल गहरी उदासी के फेरों में चक्कर खाने लगता है। मालूम पड़ता ही नहीं कि कब पर आए और कब फिर गहराइयों में खोते चले गए। गहरी नींद के झौंके और उबासी वैसे ही दिनभर अहमद पटेल के साए की तरह घेरे रहती हैं, जैसे इटली की रानी पर उसका दिखता है। पंजे के तले रहने वाले कई कहते हैं कि साए में कुछ खास बात है तभी तो रानी उसे हटने भी नहीं देती। और अहमदी साया भी कम अय्यारी नहीं करता, सुना है कौन कहां से कब और कैसे चुनावी नय्या पर सवार होगा ये पटेल ही तय करता है। वैसे अपन पैदा नहीं हुए थे तब से राजा-रानी के खेल कहानी में अय्यारों की हैरतअंगेज कहानियां लोगों को हैरान और परेशान करती आई हैं। वैसे लोगों ने देखा भी बहुत कुछ है, ये हिन्दुस्तान है इसलिए लोग सुन कर अनसुना कर देते हैं। वैसे रानी की सास यानि कि महारानी के जमाने में जितने खेल हुए हैं उसकी सूची बनने लग जाए तो हिन्दुस्तान से स्विजरलैंड तक रंगीन कागज़ के गलीचे बिछ जाएं..., मगर अपन को क्या करना है हम भी तो उसी मरी हुई कौम से है।
रानी और महारानी में फर्क बहुत है, महारानी के जमाने में इंटरनेट और केबल टीवी पर आने वाले लीचड़ चैनल कम हुआ करते थे शायद, नहीं तो फर्क फर्क नहीं रहता। रानी के कारनामें इतने महान हैं कि बयां करना कम पड़ जाएगा, असल में जितना इस त्याग की देवी ने लोगों को रुलाया है उतना महारानी भी ना रुला पाईं थीं, हालांकि महारानी ”गराबी हटाओ ” के नारे लगवा कर जरूर गरीबों की तारणहार बन गई थी, लोग तब शायद अफीम का ज्यादा नशा करते थे, इसीलिए महारानी के नारों के आगे की दास्तां भूल गए। आज भी हालत ज्यादा अलग नहीं है, फर्क सिर्फ इतना है कि रानी को मीडिया मैनेजमेंट करना बखूबी आता है। नहीं तो मोहाली में खेले गए वर्ल्ड कप सेमिफाइनल में सचिन के साथ साथ रानी और लाडले का शॉट बार बार नहीं दिखाया जाता...। खैर अपन ज्यादा नहीं बोलेंगे वैसे अपन के कहने या लिखने से ज्यादा फर्क तो पड़ने वाला है नहीं। और लिखे भी किस के लिए... मुर्दा कौम के लिए।
आज़ादी के बाद से आज तक ना जाने बंगाल की खाड़ी में कितना पानी नमकीन हो गया है... ना जाने हिमालय से कितने हिमनद जम कर सूख गए हैं... और ना जाने कितने ही बाघ अपनी खाले उतरवा चुके हैं.... फर्क नहीं पड़ने वाला। कितने ही शेरशाह और ना जाने कितने ही अब्दालियों ने हिंद की आबरू के साथ साथ कफन भी नोंच लिए हैं। लेकिन मजाल क्या है जो हमने अपने हलक से आह निकाली हो...।
ये कौई नहीं जानता कि ये हमारे डीएनए में इंजीनियर्ड है या जींस ही इतने परिशुद्ध है... जो हमें कतार में खड़े हो कर जुल्म सहन करने की ताकत देते हैं...। हर बार हर साल नया औरंगजेब पैदा हो कर हिंदुस्तान में अपनी हुकूमत चलाता है और अपने अनुसार जनता को तंग करने की तरकीबें इजाद करता है। ये जरूरी नहीं की हर इंसान को सिर्फ कोड़ों और तलवारों के दम पर ही प्रताड़ित किया जा सकता है, असल में नए जमाने की खासियत ही ये है कि इन सब के बगैर भी इंसानों को झकझोरा जाता है। जो जिंदा हैं उनके लिए कत्ल होने का डर खौफनाक होता है, वे कत्ल से बचने के लिए आखिरी वक्त तक लड़ते भी रहते हैं... लेकिन जो ये सोच कर बैठा है कि उसे कत्ल होना ही है... वो ना तो हाथ उठाता है और ना ही लड़ने का ही साहस दिखाता है..।
लिख कर दुनिया बदली जा सकती है, लेकिन शायद हिंद के लाडलो को स्वराज का भाव समझाया नहीं जा सकता है। नहीं तो आज़ादी दिलाने वाले बापू के हिसाब से हिंद कब का बन गया होता।
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